उत्तरी बिहार के एक गाँव में काम कर रहे एक मुसलमान शोध छात्र की डायरी

ज़हीब अजमल


पिछले साल एक शोध परियोजना मुझे उत्तरी बिहार के एक गाँव में ले गयी। इसके लिए मुझे वहीँ गाँव में ही रहना था और मुसलमान होने के बावजूद मुझे वहां किराए पर एक कमरा ढूँढने कोई मुश्किल नहीं हुयी। मैंने नए लोगों से मिलने के अनुभव और नयी चीज़ें सीखने का आनंद लिया… यह मज़ेदार था।
मेरे काम की मांग है कि मैं लोगों से मुलाक़ात करूँ, उनसे बात करूँ, उनसे सवाल पूछूं और उनसे जवाब हासिल करूँ। मेरा ‘काम’ वहां कुछ लोगों को काफी अजीब लगा हुआ होगा। शोध एक ‘काम’ नहीं है, क्या है?
मेरी रमन मंडल के साथ दोस्ती हो गयी थी और मैं उसकी दूकान के बाहर लोगों से बात करते हुए काफी वक़्त बिताता था। दुकानदार ने एक बार अचानक मुझे रोका और पूछा, ‘आपका नाम क्या है?’
मैंने जवाब दिया, ‘इब्राहीम’
उसने कहा, ‘नहीं पूरा नाम।’
‘इब्राहीम अफज़ल’
‘अफज़ल गुरु?’ उसने मज़ाकिया लहजे में कहा।
इससे पहले कि मैं इस सदमें से उबर पाता, उसके दोस्त ने पूछा, ‘आपको कौनसा देश पसंद है? हिन्दुस्तान या पकिस्तान?’
यह यहीं नहीं रुका। मेरे दोस्त रमन ने फिर से वह कहा जो मेरे लिए डरावना था। ‘आपको हम लोग आतंकवादी समझते थे। आपको कैसा लगता था?’
लगभग एक साल बाद, अभी भी वह बातचीत मुझे हिला देती है। लेकिन वह तो महज शुरुआत थी। उस ‘मुठभेड़’ के बाद, मुझसे गाँव वालों और अजनबियों द्वारा अक्सर ऐसे सवाल किये जाते थे।
महेंद्र श्रीवास्तव, जो लगभग 30 साल की उम्र का था, वह एक ‘गुमटी’ का मालिक था जहाँ वह पान बेचता था। हमारे बीच भी दोस्ती हो गयी थी और वह मुझे मेरे पहले नाम से पुकारता था।
उसने अपने पैतृक घर में एक बार हुयी चोरी का ज़िक्र किया। उसने मुझे बताया कि चोरी करने वाले मुसलमान थे। क्या उनका मज़हब उन्हें यह नहीं सिखाता? उसने आगे कहा, ‘मुसलमान लोग का काम क्या होता है – लूट, खसौट, डकेती, मार-पीट। इन लोगों का कोई धर्म है क्या?’ मैं उसको चुपचाप सुनता रहा और खुद को शांत रखने की कोशिश की, क्योंकि मेरी तरफ से कोई भी प्रतिक्रिया चीज़ों को बदतर कर देती।
मैं इस तरह की चिढ़ाने वाली बातों को नज़रंदाज़ करता हूँ, लेकिन फिर भी यह सब बातें लगातार मेरे सामने आती रहती हैं।
एक मौके पर, मैं एक स्कूल टीचर के घर के बाहर से गुज़र रहा था, पति और पत्नी दोनों सरकारी स्कूल में टीचर थे। उन्होंने मेरा स्वागत किया और मुझे बैठने के लिए कहा। हमने बात-चीत शुरू की और जल्द ही हम हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनाव के बारे में बात करने लगे।
पति ने मुझसे कहा, ‘मुझे प्रतापपुर की बूथ सुपरविज़न का काम मिला था, बहुत दिक्कत आई वहां।’
मेरे ज़्यादा पूछने पर उन्होंने बताया, ‘क्या बताएं, वहां तो वही सब रहता है…. मुसलमान सब…. बूथ को हड़प लेता है बन्दूक के नोक पर।’
उसकी पत्नी बीच में बोली, ‘मुसलमान मतलब आतंकवादी।’
मैंने उनसे कुछ भी नहीं कहा और जल्द ही वहां से विदा ले ली। मैंने विनम्रता से पति का नाम पूछा और जवाब मैं पत्नी ने मेरा नाम पूछा। जब मैंने उसे नाम बताया तो वह चौंक गयी और सवाल किया, ‘क्या आप मुसलमान हैं?’ इसके बाद उसने कहा, ‘चाय पी कर जाना।’ मैं फिर से बैठ गया और उनके साथ चाय पी।
हमारा पड़ोसी, भरत सिंह, एक राजपूत है। एक दिन जब मैं उसके घर के बाहर से गुज़र रहा था तब उसने मुझे आवाज़ दी और सवाल किया, ‘आप यहाँ क्या काम करते हैं?’
मैं इस गाँव में छ महीने रह चुका हूँ। इस दौरान उसने मुझसे कई बार यह सवाल किया है और मैं हर बार उसे अपने रिसर्च प्रोजेक्ट के बारे में बताता हूँ। हालाँकि, मुझे इससे चिडचिडाहट होती है, फिर भी मैंने उसे एक बार फिर अपने रिसर्च प्रोजेक्ट के बारे में बताया।
उसने बेफिक्री से कहा, ‘आपको लोग यहाँ चोर बदमाश समझता है, आपके बारे में लोग उल्टा सीधा बोल रहा है।’
मैंने उससे पूछा कि ऐसा कहने वाले लोग कौन हैं?
उसने कहा, ‘मैं नाम थोड़ी ले सकता हूँ, आपको कोई लैटर मिला होगा न, वह दिखा दीजियेगा कभी’। इसके बाद मैंने वह लैटर हमेशा अपने साथ रखा।
एक बार मैं एक आदमी का इंटरव्यू लेने जा रहा था। मेरे पास एक बैग था, जिसमें मैंने अपना पेन और नोटबुक रखा था। जब मैं मेन रोड पर मार्किट से गुज़र रहा था, तब मुझे आवाज़ आई, ‘ऐ झोलेवाले भाई साहब’।
मैंने आसपास देखा और फिर बेंच पर बैठे दो लोगों को देखा। उनमें से एक मेरी तरफ हाथ हिला कर इशारा कर रहा था। ‘हाँ हाँ, आप ही, इधर आइये।’
जब मैं उसके पास पहुंचा, तब उसने कहा, ‘आपके झोले में क्या है?’
मैंने कहा, ‘जी कॉपी है’
उसने कहा, ‘आप पाकिस्तानी एजेंट हो क्या?’
मैंने जवाब दिया, ‘जी नहीं, मैं यहाँ शोध करने आया हूँ, आप लोग की ज़िन्दगी को समझने आया हूँ।’
उसने कहा, ‘नहीं, हम नहीं कह रहे हैं, हमें किसी और ने बताया कि आप पाकिस्तानी एजेंट हो, इसलिए आपसे पूछ लिया।’
यह नया था, मेरे बारे में अफवाहें फ़ैल रही थीं। अफवाहें सबसे खतरनाक होती हैं। इसमें इंसान को पता नहीं चलता कि असल में चल क्या रहा है।
अब मैं काफी चिंतित हो चुका था, इसलिए मैंने अपने माता-पिता को इसके बारे में सूचित किया। मैंने इससे पहले उन्हें इन सब बातों के बारे में नहीं बताया था। मुझे लगता था कि वक़्त के साथ चीज़ें सामान्य हो जाएँगी। मैं सिर्फ अपने सीनियर साथियों को ही इन बातों की लगातार जानकारी देता था।
स्थानीय कार्यकर्ताओं ने मुझे सलाह दी थी कि मुझे इस बारे में पुलिस अधीक्षक को बताना चाहिए।
जब मैं उससे मिला, उसने मुझसे कई सवाल किये – जैसे, मैं वहां क्यों था? मैं गाँव में क्यों रहना चाहता हूँ? इत्यादि।
मैंने उसके सभी सवालों का जवाब दिया, इसके बाद उसने कहा, ‘ठीक है, आप लोकल थाने में मिल लीजिये, आपके क्रेडेंशियल्स हम वेरीफाई करेंगे।’
अब, मेरा पूरा परिवार मुझे फ़ोन कर रहा था और मुझसे इस्तीफा देकर वापस आने के लिए कह रहा था। लेकिन मैंने नहीं किया।
पिछले महीने गाँव में एक दस दिन लम्बी भागवत कथा आयोजित की गयी थी। मैं भी दो-तीन दिन उसमें गया था।
पहले ही दिन वहां पर एक जानने वाले ने कहा, ‘आप जाते हैं भागवत कथा में।’
‘जी, जाते हैं, क्यों?’
‘मुझे लगा आप अलग हो इसलिए।’
‘मतलब, हम लोग हिन्दुस्तानी, आप पाकिस्तानी।’
इस तरह की मुठभेड़ मेरे ठन्डे पसीने छुटा देती हैं।
मैं हमेशा चिंतित रहता हूँ। कब मुझसे अगला सवाल कर लिया जाए? मुझसे ही क्यों? मेरे अन्य सहयोगियों से क्यों नहीं?

(यह लेख ज़हीब अजमल ने लिखा है। वे सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ में रिसर्च फेलो हैं। यह अध्ययन श्रम पलायन, आर्थिक विकास और राजनीतिक लोकतंत्र पर किया जा रहा है और यह ब्रिटेन के आर्थिक और सामाजिक अनुसंधान परिषद द्वारा वित्त पोषित है। यह अनुसंधान ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में आयोजित है। डॉ इंदरजीत रॉय इसके प्रधान अन्वेषक हैं।)

मूल लेख नेशनल हेराल्ड पर अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है। और इसका हिंदी संस्करण खबर दरबर ने किया है और उसे अपनी वेबसाइट पर जगह भी दी है|

April 2008

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